(Pi Bureau)
16 जनवरी
अमरेन्द्र प्रताप सिंह,
राजनीति में वक्त के साथ अक्सर सवाल और जवाब दोनो बदलते रहते हैं। आज का सवाल कल का जवाब बन जाता है और जवाब एक नया सवाल, शायद यही राजनीति की कमी है और यही उसकी खूबी भी, वक्त के साथ यहां चीजे बदलती हैं और बदलाव हमेशा नए- नए सवाल लेकर आता है।
2014 के लोकसभा चुनाव से पहले जब नरेन्द्र मोदी को पीएम कैंडीडेट घोषित कर भाजपा अपने चुनाव प्रचार की रणनीति के तहत आगे बढ़ रही थी, तब पूरे देश में एक ‘नारा खूब चला था। वह नारा था ‘अच्छे दिन आने वाले हैं-हम मोदी जी को लाने वाले हैं। इस नारे का प्रभाव कुछ ऐसा था कि उत्तर भारत और खासकर उत्तर प्रदेश के मतदाताओं के बीच इसके जवाब में ‘भगवान महादेव शिव शंकर’ के लिए प्रयोग होने वाले ‘हर-हर महादेव’ का हर-हर निकाल कर मोदी के नाम के साथ जोड़ दिया गया और एक नारा गूंजा ‘हर-हर मोदी-घर-घर मोदी’। शायद इसी प्रभाव का परिणाम था कि भाजपा ने पहली बार प्रचंड बहुमत की जीत हासिल की।
भाजपा के मौजूदा राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह तब उत्तर प्रदेश के लोकसभा चुनाव प्रभारी थे और उन्होंने अपने रणनीतिक कौशल का नमूना दिखाते हुए यूपी में अपना-दल की दो सीटें मिलाकर 73 सीटों पर जीत का स्वाद चखा। प्रदेश में सत्तासीन सपा को 5, और केन्द्र में सत्तासीन कांग्रेस को 2 सीट भर नसीब हुयी। खुद को दलित मतदाताओं की ठेकेदार और सोशल इंजीनियरिंग का एक्सपर्ट मानने वाली मायावती अच्छे दिन और ‘हर-हर मोदी’ की लहार में 0 पर आउट हो गयीं।
अमित शाह हीरो बने और मौके का लाभ लेकर प्रधानमंत्री बन चुके मोदी ने उन्हें राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाकर संगठन की ताकत भी खुद की मुट्ठी में की। यूपी में शाह द्वारा हासिल की गयी इसी राजनीतिक जमीन के आधार पर उन्हें दूसरी बार भी भाजपा का अध्यक्ष बनने का मौक़ा मिला। सियासत में सफलता की यह जमीन अमित शाह के लिए खूब फायदेमंद साबित हुयी।
परन्तु वक्त के साथ अब चीजें बदल चुकी हैं। अब, ना तो अच्छे दिनों का नारा चल रहा है और ना ही कोई हर-हर मोदी, की आवाज सुनाई पद रही है। बदले वक्त समय के अनुसार चुनाव फिर सामने है, और अमित शाह के ख़ास सिपहसालार ‘जेपी नड्डा’ जोकि केन्द्र सरकार में मन्त्री भी है, उन्हें यूपी के लोक सभा चुनाव के प्रभारी की जिम्मेदारी मिली है। चार सह प्रभारी भी उनके साथ हैं, दो गुजरात से, एक एमपी से और एक दिल्ली से, इस दल बल के साथ साजो-सामन से लैस जेपी नड्डा पर अमित शाह की उसी राजनीतिक जमीन को बचाने की जिम्मेदारी है, जिससे गुजरात लेवल पर मोदी के चेलों में शुमार और उन्हें साहब कहने वाले अमित शाह आज के अमित शाह बन बैठे।
कांग्रेस के हांथो तीन राज्यों में सत्ता गवांकर, यूपी में तीन उपचुनाव हारकर, सपा-बसपा का गठबंधन बनने और बिहार से लालू-तेजस्वी तथा पश्चिम में अजीत जयंत के सपा-बसपा गठबंधन के साथ आने के बाद अब जेपी नड्डा के लिए अमित शाह की वो जमीन बचाना आसान नहीं है। क्योंकि अब ना तो कहीं अच्छे दिन का नारा दुबारा लग रहा है और नाही हर-हर मोदी की गूँज सुनाई दे रही है। साथ ही नए नए राजनीतिक समीकरणों के तहत 2014 के मुकाबले 2019 का चुनावी राण भी अलग स्टाइल में होता दिख रहा है। ऐसे में सवाल है कि क्या नड्डा शाह की जीत को दोहराकर उस सियासी जमीन को बचाये रख पाएंगे, या फिर बदली हुयी स्थितियों में यूपी कोई नया फैसला सुनाकर नड्डा और उनकी टीम को नया आइना दिखायेगा। बहरहाल बदलते वक्त के साथ सवाल और जवाब बदल चुके है।