(Pi Bureau)
वीर विनोद छाबड़ा
एक पेशावरी पठान और दूसरा बलूची पंडित। यानी दिलीप कुमार और राजकुमार। मगर एक बात दोनों में कॉमन। दोनों पंजाबी भाषी। दोनों करीब आये मद्रास में जैमिनी की ‘पैगाम’ (१९५९) के निर्माण के दौरान। दिलीप कुमार हीरो थे और उम्र में चार साल कम होने के बावज़ूद राजकुमार बड़े भाई की भूमिका में। माहौल में तमिल संस्कृति और भाषा हावी थी। तब दिलीप कुमार और राजकुमार पंजाबी में खूब हंसीं-मज़ाक करते थे। यहीं से उनकी दोस्ती परवान चढ़ी। यह फ़िल्म बड़ी हिट साबित हुई थे। दिलीप कुमार बड़े आर्टिस्ट थे और राजकुमार अभी पैर जमाने में लगे थे। लेकिन बड़े आर्टिस्ट के सामने वो मुखर रहे। इसलिए खूब सराहे गए।
वक़्त गुज़ारता गया। राजकुमार बड़े एक्टर बन गए। दुनिया उन्हें ‘जानी’ के नाम से जानने लगी। थोड़े सनकी और विलक्षण व्यक्तित्व वाले कलाकार। फुटबाल के आकार का अहं। न जाने कब किस ‘स्टार’ को एक्स्ट्रा कह दें और टॉप हीरोईन को पहचानने से इंकार कर दें – जानी, देखा है तुम्हें कहीं। इधर दिलीप कुमार का कद और अहं तो पहले से ही बड़ा था। एक उत्तर तो दूजा दक्षिण। उस ज़माने में फ़िल्मी रिसालों के सवाल-जवाब के कॉलम में लोग सवाल करते थे कि क्या ये दो बड़े कभी एक प्लेटफॉर्म पर आएंगे? क्या इनकी अदाकारी के जौहर आमने-सामने देखना नसीब में होगा? बेचारे संपादक यह लिख कर खामोश हो जाते थे – इस जन्म में तो नामुमकिन है।
बड़े कद वाले फिल्ममेकरों के लिए दो बड़ों को आमने-सामने खड़ा करना हमेशा एक चैलेंज हुआ करता था। वो उन कहानियों और किरदारों को गढ़ा करते थे जिनमें दो बड़े फिट हो जायें। फिर बड़ों को साधना भी मुश्किल होता था। डर भी रहता था कि फिल्म पूरी भी हो पायेगी कि नहीं। ‘मेरे महबूब’ के एचएस रवैल ने ‘संघर्ष’ में राजकुमार को दिलीप कुमार के सामने खड़ा करने की कोशिश। लेकिन बात बनी नहीं। दरअसल, दोनों फिल्म की रिलीज़ के बाद की इस चर्चा से डरते थे कि किसने किसको पटका।
सुभाष घई को दिलीप और राजकुमार की परदे के पीछे की नज़दीकियों के बारे में पता था। वो दिलीप के साथ घई ‘विधाता’ और ‘कर्मा’ बनाकर बहुत करीबी हो चुके थे। उन्होंने अनहोनी को होनी करने का बीड़ा उठाया। एक शानदार स्क्रिप्ट लिखी – सौदागर। दिलीप कुमार को सुनाई। उन्हें किरदार पसंद आया। पूछा उनके सामने कौन होगा? घई ने राजकुमार का नाम लिया। सुना है कि इसके लिए उन्होंने दिलीप कुमार से फ़ोन भी कराया था। राजकुमार ने घई से कहा था – हम अपने से बड़ा आर्टिस्ट सिर्फ़ युसूफ को मानते हैं। इसलिए हम यह फिल्म ज़रूर करेंगे। समझे, जानी।
लेकिन दोनों ने शर्त रखी थी कि मीडिया को दूर रखा जाए। उस ज़माने में भी फ़िल्मी रिसाले अंगीठी के नीचे पंखा झल कर हवा दिया करते थे।
जब घई ने ‘सौदागर’ का ऐलान किया और फिल्म बिरादरी ने स्टार कास्ट देखी तो शुरू में कोरी अफ़वाह मानी गयी। मगर घई बड़े उलट-फेर करने में माहिर हो चुके थे। ये उस समय का सबसे बड़ा और सनसनीखेज़ ‘कास्टिंग उलटफेर’ था। आम ख़याल था कि फुटबाल साइज़ ईगो वाले साथ आ तो गए हैं मगर फ़िल्म पूरी
होने वाली नहीं। आशावादी भी कुछ यही सोचते थे। दिलीप कुमार से ज्यादा डर चिड़चिड़े जॉनी से थी। कब किस बात पर और किससे नाराज़ हो कर सेट से छोड़ निकल लें? मगर, सारे अंदेशे ग़लत साबित हुए। प्रतिस्पर्धा कहीं प्रतिद्वंदिता न बने इसका ध्यान रखते हुए घई को कई सीन अलग-अलग शूट करके मिक्स किये। बहरहाल, फ़िल्म बनी और बड़ी सुपर हिट भले नहीं रही, मगर एक ‘यादगार तस्वीर’ तो बनी ही।
दिलीप कुमार ने राजकुमार से दोस्ती को याद करते हुए अपनी आत्मकथा ‘दि सब्स्टेंस एंड शैडो’ में लिखा है कि उनकी शादी की सिल्वर जुबली में राजकुमार अपनी पत्नी के साथ आये। भीड़ बहुत थी। उन्हें सोचा, यहां उनका क्या काम? उन्हें बिना मिले ही चले गए। एक बड़ा सा तोहफ़ा छोड़ गए। उस पर लिखा था – लाले और लाले की जान के लिए। दिलीप कुमार के करीबी उन्हें ‘लाले’ कहा करते थे।
ज़िंदगी के आखिरी दो साल राजकुमार ने बहुत तकलीफ़ में गुज़ारे। उन्हें कैंसर हो गया था। दिलीप कुमार को जब उनकी बीमारी के बारे में इल्म हुआ तो ख़ैरियत लेने उनके घर गए। मगर उन्होंने अपनी यूनिक स्टाईल नहीं छोड़ी – लाले, हम राजकुमार हैं। हमें सर्दी-जुकाम जैसी मामूली बीमारी थोड़े ही होगी। हमें कैंसर हुआ है, कैंसर।
इसके कुछ ही दिनों बाद ०३ जुलाई १९९६ को राजकुमार साहब इंतकाल फ़रमा गए। और इस तरह दोस्ती का एक और चैप्टर इतिहास बन गया।