हेलो सतार्नो…..वी हैव पापा….. चे गुएरा की यौमे विलादत पर पीआई की ख़ास पेशकश !!! Pi Exclusive !!!

(Pi Bureau)

 

राजीव मित्तल

 

बोलविया के वैलीग्रेण्डे स्थित सैनिक मुख्यालय को कोड भाषा में यह सूचना भेजते हुए कैप्टेन प्रैडो का दिल बल्लियों उछल रहा था, क्योंकि उसके सामने जो कंकालनुमा घायल व्यक्ति खड़ा था वह और कोई नहीं, उस समय का सबसे दुस्साहसी क्रान्तिकारी चे गुएरा था।

 

वर्ष 1967 के आठ अक्टूबर को अर्नेस्टो गुएरा सेरना उर्फ चे को यह दिन अमेरिका की साम्राज्यवादी नीतियों और दक्षिण अमेरिका में दशकों से चल रही उसकी लूटमार और इस महाद्वीप में चप्पे-चप्पे में बैठे उसके पिट्ठओं के प्रति दिलो दिमाग में बसी गहरी घृणा ने दिखाया था और अगले ही दिन नौ अक्टूबर को चे की हत्या कर दी गई। उसके बाद कई दिन तक यह नाटक चला कि दुनिया के सामने चे को मुठभेड़ में मारा गया कैसे दिखाया जाए। फिर उसके हाथ काट कर दूसरे साथियों के साथ पहाड़ियों में कहीं दफना दिया गया।

 

क्यूबा की बातिस्ता सरकार के खिलाफ 1956-59 में छेड़े गये अभियान में फिदेल कास्त्रो का कदम-कदम पर साथ देने वाले चे गुएरा 1962 से ही दक्षिण अमेरिका और अफ्रीका के कई देशों में काबिज यूरोप और अमेरिकी समर्थित तानाशाहों के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध छेड़ने की फिराक में थे। क्यूबा की सत्ता हासिल करने के बाद फिदेल कास्त्रो ने अपने इस विदेशी मित्र को भरपूर महत्व दिया। नागरिकता देने के साथ-साथ उन्हें सेना में अपने बाद रैंक दिया और देश का उद्योग मन्त्री बनाया, ताकि देश मार्क्सवादी अर्थव्यवस्था पर चलते हुए अपने पैरों पर खड़ा हो सके। यहां तक कि उस दौरान संयुक्तराष्ट्रसंघ के सम्मेलनों से लेकर अन्य देशों के साथ हुईं सभी समझौता वार्ताओं में चे ने ही क्यूबा का प्रतिनिधित्व किया था।

 

चे ने क्यूबा में अपने मार्क्सवादी विचारों को कठोरता से लागू करना शुरू किया और बातिस्ता के समय की अमेरिका की पूंजीवादी नीतियों को नेस्तनाबूद कर दिया। चे अपनी नीतियों को बहुत तेजी से लागू करने की राह पर थे, जिसके चलते सोवियत संघ उनसे बेहद खफा रहने लगा और क्यूबा की जनता पर उनका विदेशी मूल का होना हावी हो गया।

 

अपनी आर्थिक नीतियों के अलावा चे का क्यूबा जैसी क्रान्ति और देशों खास कर दक्षिण अमेरिका और अफ्रीका में करने पर खासा जोर था। क्रान्ति का निर्यात जैसे उनके विचार कम्यूनिस्ट जगत में चीन से तो मेल खाते थे, लेकिन सोवियत संघ को बिल्कुल रास नहीं आ रहे थे। यहीं से चे का इस महाशक्ति से मोहभंग होना शुरू हुआ और सोवियत संघ कास्त्रो को उन पर अंकुश लगाने की सलाह देने लगा। जिस समय चे बोलविया में जिन्दगी और मौत की लड़ाई लड़ रहे थे, सोवियत संघ ने उनकी बोलविया में घसपैठ पर काफी एतराज किया और ब्रेझनेव ने प्रधानमन्त्री कोसिगिन को कास्त्रो से बात करने के लिये क्यूबा भेजा था। बहरहाल, कास्त्रो का पूरा विश्वास पाने के बावजूद चे की स्थिति क्यूबा में असहज हो चली थी। यही असहजता वर्ष 1964 में अपनी परिणति पर पहुंच गई और चे ने फिदेल कास्त्रो से लम्बे विचार-विमर्श के बाद क्यूबा छोड़ने का फैसला किया।

 

अब उनके सामने थे अफ्रीका में कांगो तथा अल्जीयर्स और दक्षिण अमेरिका में खुद उनका अपना देश अर्जेन्टाइना, पेरू व बोलविया, जहां चे को सशस्त्र क्रान्ति के हालात माकूल लग रहे थे। इस वक्त तक चे विश्व की महत्वपूर्ण हस्ती बन चुके थे। तीसरी दुनिया के देशों के एक तरह से वह प्रवक्ता ही बन गये थे। उनके भाषणों में या तो अमेरिकी साम्राज्यवाद की कटु आलोचना थी या तीसरी दुनिया के देशों की तकलीफें।

 

1965 में तीन महीने बाहर रह कर क्यूबा लौटने के बाद शायद उन्होंने अपने अगले रणस्थल का चुनाव कर लिया था और वह जल्द ही लापता हो गये। और ठीक उन्नीस महीने बाद 1966 के नवम्बर माह में बोलविया दिखे।

 

इस बीच वह कहां रहे, क्या किया, यह जानने के लिये अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए ने जमीन-आसमान एक कर दिया। अन्त में उसने यही निष्कर्ष निकाला कि क्यूबा के सत्ता संघर्ष में चे मारे जा चुके हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति लिण्डन बी जानसन को भी यही बताया गया। पर अमेरिका के लिये यह राहत कुछ महीनों की ही साबित हुई। चे गुएरा उरुगुवे के नकली पासपोर्ट पर बोलविया में घुसे।

 

घने जंगलों, एण्डीज श्रृंखला के ऊंचे-ऊंचे पहाड़, बड़ी-बड़ी नदियों, गहरी खाइयों वाले इस देश में चे को काफी सम्भावनाएं नज़र आयीं, क्योंकि प्राकृतिक सम्पदा और खनिज से भरपूर इस देश का सदियों से दोहन हो रहा था। सबसे बड़ी बात उन्हें यह लगी कि पांच देशों से लगे बोलविया में क्रांति की सफलता पूरे दक्षिण अमेरिका को अपनी चपेट में ले लेगी।

 

वहां चे ने अपना ट्रेनिंग कैम्प नानसाहूआजू नदी की घाटी में बनाया, जहां से करीब थे तीन शहर कोचाबामा, सान्ताक्रूज और सुक्रे, जो सामरिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण थे। तीन-चार महीने की कड़ी ट्रेनिंग के बाद गुरिल्ला दस्तों ने बोलवियाई फौजी रिसालों पर हमले बोलने शुरू कर दिये। चे की निगाह में क्यूबा अभियान की शुरुआत की तुलना में बोलविया अभियान बेहतर ढंग से गति पकड़ रहा था। लेकिन आगे चल कर हालात बिगड़ते गये। कुल छह माह की गुरिल्ला कारर्वाई में चे के दस्ते ने तीस सैनिक मारे और अपना एक आदमी खोया। इस बीच ऐसी कई घटनाएं हुईं, जिससे दुनिया भर को पता चल गया कि चे बोलविया में हैं।

 

अमेरिका तुरन्त हरकत में आया और बोलवियाई फौज की सैकेण्ड रेंजर बटालियन को सीआईए की देखरेख में ट्रेनिंग दिलाने के बहाने बोलविया से समझौता किया। 1967 के अप्रैल में राष्ट्रपति जानसन के सलाहकार वाल्ट रोस्तोव ने उन्हें असलियत बताई कि चे नहीं मरा और वह बोलविया में है।

 

तब तक चे की मुश्किलें शुरू हो चुकी थीं। उसके छापामार दस्ते के लोग या तो सैनिक झड़पों में घायल होते जा रहे थे या किसी न किसी बीमारी की चपेट में आ कर असहाय होते जा रहे थे। मौतों का सिलिसला भी शुरू हो गया था। लड़ने वालों की संख्या दिन पर दिन कम होती जा रही थी और नयी भारती नाममात्र को थी। उनका स्थानीय जनता से जुड़ाव हो ही नहीं पा रहा था। एक नदी पार करते हुए वह उपकरण भी बह गया, जिसके दम पर चे का क्यूबा से सम्पर्क बना हुआ था। सितम्बर आते-आते अमेरिका से ट्रेनिंग पायी साढ़े छह सौ जवानों की बटालियन पूरी तरह सक्रिय हो चे और उनके दस्तों के खात्मे में जुट गई। चे की 11 महीने के बोलवियाई अभियान के दौरान लिखी गई डायरी पर आखिरी कलम सात अक्टूबर को चली। उस दिन तक चे का दस्ता सैनिक टुकड़ियों से पूरी तरह घिर चुका था और अन्तिम समय हर पल नजदीक आता जा रहा था। उसी दिन चे ने रेंजरों से बचते हुए ला हिगुएरा के गांव में एक बूढ़ी औरत से सैनिक टुकड़ी की बारे में पूछताछ की, पर कोई पुख्ता जानकारी उन्हें नहीं मिली।

 

चे ने उस औरत को चुप रहने के लिये के लिये कुछ पैसे भी दिये। आठ अक्टूबर को रेंजरों को सूचना मिल चुकी थी कि चे अपने दस्ते के साथ घाटी के किस हिस्से में छिपे हैं। उसी दिन अन्तिम भिड़ंत हुई और दोपहर डेढ़ बजे पैरों में कई गोलियां खा चुके चे रेंजरों के हाथ पड़ गये। यह था चे का अंत, जिसकी मौत ने उन्हें इस कदर लोकप्रिय बना दिया कि करीब 40 साल बाद जब उनके महाद्वीप के देशों से अमेरिकी दलालों को मार-मार कर भगाया जा रहा था, तो हर किसी की आंखों में चे बसे हुए थे। और आज तमाम दक्षिण अमेरिकी देशों में जो सरकार हैं, वे खुल कर अमेरिकी नीतियों का विरोध कर सत्ता में आयी हैं।

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