(Pi Bureau)
— वीर विनोद छाबड़ा
09 जुलाई 1938 को जन्मे हरिभाई जेठालाल जरीवाला थिएटर किया करते थे। सावन कुमार टाक ने ‘नौनिहाल’ में उन्हें बना दिया। कई फिल्मों में छोटी-मोटी भूमिकाओं से लेकर हीरो तक रहे। लेकिन अनाम बने रहे। मगर एक्टिंग की जानकारी रखने वालों को बहुत इम्प्रेस बहुत किया। इनमें हरनाम सिंह रवैल भी थे। दिलीप कुमार सरीखे ग्रेट के सामने एक निगेटिव रोल ऑफर किया। हरीभाई ने झपट लिया। अपने आइडियल युसूफ भाई के सामने स्किल दिखाने का मौका कैरियर की शुरुआत में मिल गया। यह उम्मीद कतई नहीं थी। और वाकई पूरी कूवत दिखाई हरीभाई ने। पब्लिक ने उन्हें बहुत सराहा।
प्रेस ने भी हरीभाई की खूब प्रशंसा की। दिलीप विरोधी एक लॉबी ने यह तक कह दिया कि कद्दावर युसूफ भाई को असहज कर दिया एक नए एक्टर हरीभाई ने।
लेकिन ऐसा नहीं था। दिलीप कुमार ने संजीव की बहुत तारीफ़ की। उस ज़माने में धारणा थी कि दिलीप कुमार अपने से बेहतर किसी की परफॉरमेंस बर्दाश्त नहीं करते थे और अपने ऊंचे कद के जलवे का इस्तेमाल करके ऐसे सीन कटवा देते हैं। दिलीप एक संजीदा अदाकार थे। सीन बेहतर हो, इस तथ्य के दृष्टिगत कुछ सुझाव ज़रूर देते थे। अगर वो निगेटिव धारणा वाले होते तो संजीव के वो सारे सीन/शॉट कटवा देते जिसमें संजीव उन पर भारी दिखे। कुछ भी हो यह तो तय हो गया था कि बड़े बड़ों की छुट्टी करने के लिए एक उम्दा अदाकार मैदान में आ गया है।
संजीव को अगली बार दिलीप कुमार के सामने खड़े होने का मौका मिला १९८२ में रिलीज़ गुलशन राय की सुभाष घई निर्देशित ‘विधाता’ में। लंबाई के हिसाब से छोटा मगर बहुत असरदार किरदार।
यह वो दौर था जब दिलीप कुमार कैरियर की दूसरी पारी शुरू कर चुके थे और संजीव स्थापित बेहतरीन अदाकार। बेहतरीन अदाकारी में दिलचस्पी रखने वालों को बस इंतज़ार था कि दोनों कब आमने-सामने होते हैं और अदाकारी का कौन सा नया गुल खिलता है।
दिलीप-संजीव का कई शॉट में आमना-सामना हुआ। सब ठीक चला। आखिर वो सीन आ गया जिसका सब इंतज़ार कर रहे थे। संजय दत्त एक गरीब मछुआरिन से शादी करना चाहता है, मगर दादा दिलीप को सख़्त ऐतराज़ है। बचपन से परवरिश करते आये अबु बाबा संजय का साथ देते हैं। हाई वोल्टेज सीरियस और इंटेंस ड्रामा।
दिलीप कहते हैं -आप अपनी हैसियत से बहुत बढ़ कर बात कर रहे हैं।
संजीव पलट कर जवाब देते हैं – आप अपनी हैसियत से बहुत गिर कर बात कर रहे हैं।
आख़िर में अबु बाबा बआवाज़े बुलंद एलान करते हैं – जाओ तुम मुझे क्या निकालोगे, मैं ही तुम्हें मालिक की नौकरी से अलग करता हूं।
गौरतलब है कि इस डायलॉग से पहले दिलीप कुमार सीन से निकल जाते हैं।
दो राय नहीं कि इस ड्रामे में जीत और तमाम तालियां संजीव के हिस्से में गईं। कुछ एक्सपर्ट का दावा था कि कद्दावर दिलीप इस ड्रामे को हटवा देंगे। मगर ऐसा नहीं हुआ। ये सिर्फ हरीभाई की जीत नहीं थी। अदाकारी की बेहतरीन मिसाल थी। जब दो ग्रेट आमने-सामने होते हैं तो ऐसा ही कुछ अजूबा होता है।
हरीभाई अदाकारी की मिसाल बने रहे । उन्होंने १६३ फ़िल्में की। दस्तक व कोशिश के लिए नेशनल अवार्ड और आंधी व अर्जुन पंडित के लिए फिल्मफेयर अवार्ड। शिकार के लिए भी उन्हें बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर फिल्मफेयर मिला था।
ये ट्रेजडी नहीं तो क्या है कि उन्होंने ६०-६५ से ज्यादा उम्र वाले बेशुमार किरदार किये लेकिन खुद महज़ ४७ साल की उम्र में इंतकाल फ़रमा गए।