(Pi Bureau)
विभावरी जेएनयू
किसी कलाकार की प्रतिभा से सही तौर पर तब वाकिफ़ होना जब वह अपने उरूज़ पर पहुँचने के बाद अपने काम से दूर रहकर सालों बाद इंडस्ट्री में वापस लौटा हो…खासतौर पर तब जब वह कलाकार एक स्त्री भी हो, अपने आप में एक रोचक बात है. मेरे ज़ेहन में हमेशा से श्रीदेवी की इमेज एक ऐसी अभिनेत्री की रही जो कॉमर्शियल सिनेमा की तमाम ज़रूरतों के हिसाब से फिट हैं और इस वजह से टॉप पोजीशन पर सालों तक बने रह पाने में समर्थ भी. (‘सदमा’ जैसी एकाध फिल्मों को छोड़ कर जिसमें उनका अभिनय बेहद सधा हुआ था.) ‘इंग्लिश विंग्लिश’ में उन्होंने प्रभावित किया मुझे…लेकिन कल जब ‘मॉम’ देख कर आई तो काफ़ी देर तक अपने किरदार के तमाम शेड्स को अपनी शानदार देह- भाषा और भंगिमाओं के मार्फ़त निभाती श्रीदेवी, अटकी रह गईं कहीं दिलो-दिमाग पर…
फिल्म पूरी तरह से कॉमर्शियल फॉर्मैट पर रची गयी है लेकिन इसकी बेहतरीन सिनेमैटोग्राफ़ी, नैरेटिव, एडिटिंग और तमाम कलाकारों का मंझा हुआ अभिनय इसे एक ख़ूबसूरत फिल्म बनाने के लिए काफी है. ‘फिज़िकल अब्यूज़’ पर हालिया समय में बनी तमाम फिल्मों की श्रृंखला में एक और दख़ल. फिल्म में समस्या के ट्रीटमेंट का नुक्ता, आपको सत्तर के दशक में प्रचलित ‘बदले की भावना पर आधारित थीम’ की याद दिला सकता है तो फिल्म का ड्रामैटिक एंड इस याद को और गहरा सकता है लेकिन अपने तमाम आयामों के साथ पूरी फिल्म इतनी कसी हुई है कि आपको कम से कम उस वक़्त कुछ और सोचने का मौक़ा नहीं देती. पैसा कमाने की होड़ में बने ‘पांच सौ करोड़’ जैसे क्लब्स के दौर में अपनी तमाम कमियों के बावजूद भी ऐसी फ़िल्में प्रभावित करती हैं.
कह सकती हूँ कि ठीक तरह से हिंदी न बोल पाने, स्क्रीन पर ज़्यादातर समय मिनिमम मेकअप में रहने के बावजूद भी शानदार तरीके से अपने किरदार को निबाहती श्रीदेवी के अभिनय भर को देखने के लिए भी यह फिल्म देखी जा सकती है.