स्त्री, पितृसत्ता के कोर्ट में दोनों (सामंत और बाज़ार) तरफ मौजूद पुरुषवाद का शटल कॉक भर है जहाँ इस पेट्रियार्की को ख़त्म किये बग़ैर उसका गुज़ारा नहीं है/ ‘ लिपस्टिक अंडर माय बुर्का ’ समीक्षा !!!

(Pi Bureau)

 

विभावरी जेएनयू :

‘लिपस्टिक अंडर माय बुर्का’ एक ऐसे समय में आई है जब कि पूरा सोशल मीडिया ‘नेचुरल सेल्फी’ कैम्पेन के हैंग ओवर से गुज़र रहा है और लगभग दो खेमों में बंट चुका है कि महिला को श्रृंगार करना चाहिए या नहीं, उसकी सुन्दरता के मानक क्या होने चाहिए, बाज़ार कैसे इन मानकों को सिर्फ नियंत्रित ही नहीं करता है बल्कि इसकी आवश्यकता को पैदा भी करता है…वगैरह वगैरह. मुझे लगता है जिन लोगों के भी मन में स्त्री की सुन्दरता से जुड़ा यह भ्रम मौजूद है कि किसी एक मानक से हर स्त्री के सौन्दर्य सम्बन्धी मसलों को सुलझाया जा सकता है तो उन्हें यह आग्रह छोड़ देना चाहिए और यह फिल्म ज़रूर देखनी चाहिए. ऐसा इसलिए भी कह रही हूँ कि चार अलग-अलग पृष्ठभूमियों की महिलाओं के जीवन को साथ लेकर चलती यह फिल्म शायद इस जटिल मसले को समझने में हमारी थोड़ी मदद कर सके. जैसे कि पिछले कई दिनों से हम स्त्री के सौन्दर्य सम्बन्धी सामाजिक मान्यताओं पर बहस कर रहे हैं कि हमें अपने भीतर अपने शरीर या सौन्दर्य को लेकर कोई कुंठा नहीं पालनी चाहिए लेकिन यह कहते वक़्त शायद हम ये भूल रहे होते हैं कि इस बाज़ारवादी समय में जिस कुंठा का शिकार न होने की बात हम कर रहे हैं यह इतनी आसान बात नहीं दिखती और इस अकुंठ भाव को प्राप्त कर पाने की दिशा में स्त्री की शिक्षा, उसकी आर्थिक आत्मनिर्भरता जैसी तमाम महत्त्वपूर्ण बातें मायने रखती हैं. ज़ाहिर है इन बातों को इस पूरी बहस से खारिज नहीं किया जा सकता. यद्यपि स्त्री के सौंदर्य से जुड़े इस मसले को ‘स्त्री के चयन’ का मसला कहने पर उसे मिल रहे विकल्पों (जो बाज़ार से मुक्त कतई न होंगे) पर सवाल उठ सकते हैं लेकिन एक बात तो तय है कि किसी भी हाल में जब पितृसत्ता यह तय करने लगे कि स्त्री को क्या पहनना है और क्या नहीं या वह कैसे सुन्दर दिखेगी कैसे नहीं तो यह बात परेशानी पैदा करती है.

फिल्म की प्रोटैग्निस्ट है ‘रोज़ी’…जो दरअसल फिल्म का नहीं बल्कि उस उपन्यास का प्रतिनिधि किरदार है जिसे ‘उषा’ का चरित्र पूरी फिल्म के दौरान पढ़ता है और प्रतीकात्मक तौर पर जिसका सम्बन्ध फिल्म के चारों किरदारों से जुड़ता है. फिल्म के चारो किरदार टुकड़ों टुकड़ों में दरअसल रोज़ी के चरित्र के ही पूरक हैं.

अपनी असल ज़िन्दगी में बुर्का पहनने को मजबूर और छुप-छुप कर जींस पहनने वाली ‘रिहाना’ का किरदार जब जींस पहनने के अधिकार के लिए लड़ते हुए हवालात पहुँच जाता है तो इस एक तथ्य का सामाजिक विश्लेषण करते हुए आप इसे मात्र बाज़ार का दबाव नहीं कह सकते बावजूद इसके कि रिहाना का पूरा किरदार दरअसल सामंती तथा बाज़ारवादी मूल्यों के बीच पिसता एक किरदार है जिसकी अपनी ख्वाहिशों के कोई मायने नहीं हैं. इस किरदार को अनफोल्ड करते हुए आपको यह भी मानना पड़ेगा कि जिस समाज में स्त्री को जींस न पहनने, मोबाइल न रखने या एक पर्टीक्यूलर ड्रेस कोड को अपनाने का दबाव हो वहां यही बाज़ार, समाज द्वारा स्त्री के लिए जारी किये गए ऐसे सामंती फतवों के वक़्त पितृसत्तात्मक खतरे की कोटियों में दूसरे पायदान पर चला जाता है. तो बेसिकली भारत जैसे समाज में जहाँ आज भी फ्यूडलिज़्म और कैपिटलिज़्म एक साथ एग्ज़िस्ट करते हैं वहां स्त्री, पितृसत्ता के कोर्ट में दोनों (सामंत और बाज़ार) तरफ मौजूद पुरुषवाद का शटल कॉक भर है जहाँ इस पेट्रियार्की को ख़त्म किये बग़ैर उसका गुज़ारा नहीं है.

पिछले दिनों इरफ़ान पठान या मो. शमी की पत्नियों को उनके ड्रेसिंग सेन्स के लिए ट्रोल किया गया. पर्दा न करना या नेलपेंट लगाना किसी का चयन भी हो सकता है. हालाँकि जब चयन के इसी अधिकार को हम बुर्का या घूंघट करने के चयन से जोड़ कर देखते हैं तो बात उतनी ही दिक्कततलब हो जाती है क्योंकि बहुत सी महिलायें इस बात के पक्ष में हैं कि बुर्का या घूंघट उनका खुद का चयन है और वे यह बात मानने से कतई इनकार करती हैं कि यह उनकी चेतना पर किया पितृसत्ता का नियंत्रण है जो उनके इस चयन के पीछे निर्णायक भूमिका में है. सवाल जटिल है और फिल्म के एक दूसरे किरदार ‘शिरीन’ के मार्फ़त खुद को आगे बढ़ाता है.

जिस देश ने अब तक ‘मैरिटल रेप’ को अपराध की श्रेणी में न रखा हो, विवाह जन्म- जन्मान्तर का रिश्ता माना जाता हो वहां अगर बाज़ार तीन बच्चों की माँ बन चुकी ‘शिरीन’ जैसी एक स्त्री को अपने पति द्वारा लगभग रोज़ किये जा रहे ‘मैरिटल रेप’ को झेलने और उसके कॉन्सीक्वेंसेज़ से निपटने के टूल के रूप में कॉन्ट्रासेप्टिव पिल्स देता है तो स्त्री-शरीर को इससे होने वाले तमाम खतरों के बावजूद यहाँ फिर से बाज़ार, पितृसत्तात्मक खतरों की लिस्ट में दोयम दर्जे पर पहुँच जाता है. या फिर बाज़ार अगर उसी महिला को अपने पक्ष में सेल्स वूमन के बतौर इस्तेमाल करता है तो भी उसकी आर्थिक आत्मनिर्भरता (जो पति के दबाव में मुखर भले न हो/ छुपी हुई हो) के नुक्ते से एक सेवियर के रूप में उभरता है.

मेरा मानना है कि आर्थिक आत्मनिर्भरता का न होना एक स्त्री की परतंत्रता के तमाम महत्त्वपूर्ण कारणों में से एक है और इस फिल्म के लगभग सारे स्त्री किरदार आर्थिक आत्मनिर्भरता के सवालों से जूझते, दमदार किरदार हैं. यह फिल्म स्त्री की आर्थिक आत्मनिर्भरता के मसले सहित जिस दूसरे संवेदनशील बिंदु को छूती है वह है- एक औरत की सेक्शूअल डिज़ायर. हमारे समाज में यह एक ऐसा मसला है जिसे हमारा पुरुष समाज नकारात्मकता की हद तक न सिर्फ ग़लत मानता है बल्कि इससे डरता भी है. शायद यही कारण रहा कि हिंदी मुख्यधारा सिनेमा ने जब –जब स्त्री की सेक्शूअल डिज़ायर के मसले को छुआ उसे अनिवार्यतः उस स्त्री को या तो ‘वैम्प’ बनाना पड़ा या फिर पति द्वारा छली गयी स्त्री. तमाम अन्य पुरुषवादी प्रवृत्तियों की ही तरह इस प्रवृत्ति का भी एक ऐतिहासिक पहलू है. एंगेल्स की किताब ‘परिवार, निजी सम्पत्ति और राज्य की उत्पत्ति’ इस बात को स्वीकारती है कि मातृसत्तात्मक समाज से पितृसत्तात्मक समाज के विकास में स्त्री की यौनिकता का नियंत्रण एक महत्त्वपूर्ण पहलू रहा. लिहाज़ा एक पुरुष प्रधान समाज कभी भी स्त्री की यौनिकता (स्त्री के यौन आनन्द) पर बात करने के सन्दर्भ में न तो सहज रहा न ही उसने स्त्री को इस मसले पर सहज रहने दिया. आज भी हमारे समाज में किशोर होती लड़कियों को उनके शरीर के विकास के प्रति इतना सचेत कर दिया जाता है कि तमाम उम्र वे अपने शरीर को जाने- अनजाने, चाहे-अनचाहे पितृसत्ता के ही नज़रिए से देखने की आदी हो जाती हैं और इस बात का ख़याल भी कि -उनका ख़ुद का शरीर उनके लिए आनंद का विषय हो सकता है- या तो उनके ज़ेहन में नहीं आता या फिर एक गिल्ट को साथ लेकर आता है.

पिछले दिनों सोशल मीडिया पर इस विषय पर काफी घमासान देखने को मिला कि एक स्त्री को अपनी यौनिकता या फिर स्त्री मात्र की यौनिकता पर खुलेआम अभिव्यक्ति की आज़ादी है या नहीं और अगर है तो ट्रोल्स द्वारा उसके लिए जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल किया जा रहा है वह कहाँ तक जायज़ है!!

इस लिहाज़ से ‘लिपस्टिक अंडर माय बुर्का’ एक बड़ी फिल्म है जो इस बेहद बोल्ड विषय को ख़ूबसूरत तरीके से निबाहती है. भारत में अपनी रिलीज़ से पहले ही ग्यारह अंतर्राष्ट्रीय अवॉर्डस जीत चुकी यह फिल्म स्त्री की कामनाओं को जिस तरह से अभिव्यक्त करती है वह हमारे रूढ़िवादी पितृसत्तात्मक समाज का हाज़मा निःसंदेह खराब कर सकती है. फिल्म के पोस्टर में लिपस्टिक का, मिडिल फिंगर के रूप में जिस तरह से प्रतीकात्मक प्रयोग किया गया है, वह दरअसल पितृसत्तात्मक समाज को चुनौती दे रही एक फिल्म का प्रतिनिधित्व ही कर रहा है.

एक ऐसा समाज जहाँ आज भी विवाह या परिवार जैसी संस्थाएं, संतानोत्पत्ति और उनके पालन-पोषण के द्वारा समाज को चलाये जाने के तंत्र के रूप में ही देखे जाते हों वहां स्त्री का खुद के यौन आनंद के प्रति सजग होना सदियों आगे की बात लगती है.

‘लीला’ का किरदार जब भोपाल जैसे शहर से दूर दिल्ली जैसे बड़े शहर में अपना करियर और भविष्य देखता है तो वह कहीं न कहीं छोटे शहरों की उन सामंती मान्यताओं से भी भाग रहा होता है जो उसे घुटन दे रही हैं! उसकी आँखों में जो सपने हैं वो इस बात से बिलकुल बेख़बर हैं कि असल शोषक तो पितृसत्ता है जो अपने चोले बदल कर स्त्री को न सिर्फ छल रही है बल्कि कड़े नियंत्रण के द्वारा उस पर खुद का पूरा अधिकार भी चाहती है. ज़ाहिर है सामंतवाद की शक्ल के पीछे भी वही पितृसत्ता काम कर रही है जो कि बाज़ारवाद के. स्त्री के शरीर से लेकर उसके श्रम तक का शोषण करना जिसका प्रिय शगल है.

…और इस फिल्म का सबसे खूबसूरत किरदार जो सालों तक ज़ेहन में बना रहेगा वह है ‘उषा’. इस किरदार के मार्फ़त रत्ना पाठक ने फिर से बेमिसाल अदाकारी का परिचय दिया है. फिल्म अपनी शुरुआत के कुछेक मिनटों के भीतर ही हमारी इस सामाजिक मान्यता को स्पष्ट कर देती है कि 55 साल की उम्र के विधुर पुरुष के पुनर्विवाह के लिए 35-40 की लड़की भी चल जायेगी लेकिन 55 साल की विधवा स्त्री को अपनी कामनाओं को ज़िंदा रखने का भी हक़ नहीं!!

मुझे याद है रेलवे स्टेशन पर बिकने वाले लुगदी साहित्य/ लोकप्रिय साहित्य का वो दौर. लड़की होने के नाते वह साहित्य मेरी पहुँच से हमेशा ही दूर रहा लेकिन जब बड़ी हुई और इसके प्रति थोड़ी समझ बनी तो यह समझ पाई कि दरअसल इस साहित्य की लोकप्रियता का केंद्र इसकी मनोरंजन परकता के साथ साथ मनुष्य की यौन कुंठाओं को तृप्त करने का इसका कौशल भी है. फिल्म, लुगदी साहित्य की उन यादों को ताज़ा करती है.

एक ऐसा समाज जहाँ एक निश्चित उम्र के बाद पति-पत्नी की हमबिस्तरी को भी अपराध किये जाने जैसी नज़रों से देखा जाता हो वहां किसी विधवा की कामनाओं का पचपन की उम्र में ज़िंदा रह जाना बेशक़ किसी पाप से कम नहीं!! पति के मर जाने के बाद यह समाज औरत को ‘सती’ होने को नहीं कह रहा या फिर ‘जौहर’ कर लेने पर मजबूर नहीं कर रहा इस बात का शुक्रगुज़ार होने की बजाय यदि कोई औरत पचपन की उम्र में अपनी दैहिक इच्छाओं को पाने की चाह में ‘लुगदी साहित्य’ सहित फोन जैसी तकनीकों का सहारा ले तो उसका अंजाम क्या हो सकता है, फिल्म यह बेहद खूबसूरत तरीके से अभिव्यक्त करती है.

यह फिल्म का रिव्यू नहीं है बल्कि फिल्म के बहाने से हमारे समाज की स्त्री दृष्टि पर एक कॉमेंट भर है क्योंकि फिल्म के रूप पक्ष पर यहाँ बिलकुल भी बात नहीं की है मैंने. हाँ, यह ज़रूर कहूँगी कि फिल्म की डायरेक्टर अलंकृता श्रीवास्तव ने बेहतरीन काम किया है इस फिल्म में जबकि यह उनकी दूसरी फिल्म भर है. एक्टिंग के लिहाज़ से रत्ना पाठक, कोंकणा सेन शर्मा, अहाना कुम्रा और प्लबिता बोरठाकुर शानदार हैं. यह फिल्म स्त्री के नज़रिये से बदलते बॉलीवुड सिनेमा के इतिहास में निःसंदेह एक सुखद मोड़ कही जा सकती है.

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