……..इस अन्धेरे का भी लेकिन सामना करना तो है….जापानी इंसेफलाइटिस(Pi-Exclusive)

सग़ीर ए ख़ाकसार
स्वतंत्र पत्रकार।
जापानी इंसेफलाइटिस अथवा मस्तिष्क ज्वर जिसे आम तौर पर दिमागी बुखार भी कहा जाता है ।पुर्वांचल के मासूमों के लिए नासूर बन गया है।इस जानलेवा बीमारी ने 1978 में दस्तक दी थी।उसी वर्ष 528 मासूम बच्चों की मौत हो गयी थी।गैर सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 1978 से लेकर 2013 तक कमोबेश 50 हज़ार मासूम बच्चे इस बीमारी से अपनी जान गंवा बैठे हैं।इस बीमारी से जूझ रहे बच्चों में 74 फीसद बच्चों के माता पिता बेहद गरीब तबके से आते हैं।जिनकी मासिक औसत आय महज़ 1000 से 2000 रुपये होती है।शायद यही वजह है कि इतनी बड़ी जानलेवा बीमारी कभी बड़ी समस्या नहीं बन पाई।मासूम बच्चों की पुर्वांचल में मौत एक सामान्य सी बात हो गयी है।चूंकि इस बार मौत का आंकड़ा  दोगुना या उस से ज़्यादा हो गया है।इसलिए यह सुर्खियों में है और इसकी गूंज पूरे देश में सुनाई पड़ रही है।
1978 से शुरू हुआ मासूम बच्चों की मौत का सिलसिला थमने का नाम ही नहीं ले रहा है।या ये कहें कि हालात पहले से ज़्यादा भयावह होते जा रहे हैं।सरकारें  बदलती रहती हैं।लेकिन हालात नहीं बदलते।आरोप प्रत्यारोप के बीच मासूम अपने जान गवाते रहते हैं।कमोवेश सभी आती जाती सरकारों ने यूं तो इस महामारी के समूल नाश के दावे तो बहुत किये।लेकिन परिणाम कोई खास नहीं निकला।सब हवा हवाई ही साबित हुआ।इस साल 2017 के आंकड़ों को देखें तो जनवरी से जुलाई के बीच महज़ 7 माह में 829 बच्चों की मौत हो चुकी है।यही नहीं सरकारी आंकड़ों के मुताबिक पूर्वी यूपी में 2005 में 1500,2006 में 528,2007 में 545,2008 में 537,2009 में 556,2009 में 556,2010 में 541 ,2011 में 554,2012 में 533,2013 में 576 ,2014 अक्टूबर के अंत तक 497 मासूम अपनी जान गंवा चुके हैं।
गोरखपुर के वरिष्ठ पत्रकार मनोज सिंह  कहते हैं कि प्रति वर्ष  करीब 2500 से 3000 इंसेफलाइटिस के मरीज बीआरडी मेडिकल कालेज गोरखपुर में भर्ती होते हैं।यहां का वार्ड नंबर 12 इंसेफलाइटिस के मरीजों से भरा रहता है।श्री सिंह कहते हैं मेडिकल कालेज की तरफ से इंसेफलाइटिस से जुड़े करीब 400 चिकित्साकर्मियों के लिए 20 करोड़ वार्षिक बजट की मांग की गई थी।जो फिलहाल पूरी नहीं कि गयी है।जुलाई से नवम्बर के आखिर तक इस बीमारी का प्रकोप ज़्यादा रहता है।कुल संक्रमित लोगों में बच्चों की तादाद करीब 90 फीसदी होती है।
आइये समझने की कोशिश करें कि आखिर यह कैसी बीमारी है?दरअसल जापानी इंसेफलाइटिस अथवा दिमागी बुखार  एक घातक संक्रामक बीमारी है।यूं तो यह अपने देश के कई राज्यों बिहार ,झारखंड, उड़ीसा, समेत करीब दर्जन भर राज्यों में पाई जाती है।बताते हैं सबसे पहले इस बीमारी का पता 1955 में तमिलनाडु में चला।1978 में इस बीमारी ने पूर्वी यूपी में दस्तक दी।तब से आज तक यह पूर्वी यूपी के लिए एक गंभीर स्वास्थ्य समस्या बनी हुई है।यहां के लोगों के लिए एक अभिशाप बन गयी है।इस क्षेत्र का गोरखपुर और कुशीनगर इस बीमारी से सर्वाधिक प्रभावित बताया जाता है।हालांकि यूपी के करीब 29 ज़िलों में इसकी उपस्थिति दर्ज की गई है।गोरखपुर के ही वरिष्ठ पत्रकार मोहम्मद कामिल खान कहते हैं।प्रति वर्ष सैकड़ों बच्चे इस जानलेवा बीमारी से असमय ही दुनिया को अलविदा कह देते हैं।बयस्कों की तुलना में बच्चों में इस बीमारी की दर ज़्यादा होती है।श्री खान कहते हैं इस बीमारी से मासूमों का शरीर गर्म हो जाता है।गर्दन अकड़ जाती है।झटके भी आते हैं।कभी कभी मासूम बच्चे कोमा में भी चले जाते हैं।शरीर को लकवा भी मार जाता है।इलाज के बाद भी अपंगता और बच्चों के बौने होने आदि की भी संभावना बनी रहती है।पूर्वी उप्र के सिद्धार्थ नगर,महराजगंज,बलरामपुर ,गोण्डा, देवरिया बस्ती,आदि ज़िलों के मासूमों पर यह बीमारी कहर बनकर टूटती है।गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कालेज में बस्ती, आज़मगढ़ मंडल के अलावा पड़ोसी राष्ट्र नेपाल के तराई के भी मरीज ईलाज के लिए आते हैं।
जनवरी 2014 में बीआरडी मेडिकल कालेज से सिर्फ 5 किमी दूर मानबेला गांव में एक जनसभा को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था”अब एक भी बच्चे को मरने नहीं दिया जाएगा”।ज़ाहिर है उनका इशारा इस जानलेवा इंसेफलाइटिस से मर रहे बच्चों की तरफ था।विपक्ष में रहते हुए  सीमा योगी आदित्यनाथ ने इस मुद्दे को बड़े जोर ढंग से उठाया था।अब बतौर सीएम वो क्या करते हैं सबकी निगाहें उन्हीं पर आ टिकी हैं।यूपी की जनता ने 77 सांसद और 325 विधायक भाजपा को दिए हैं।प्रदेश और केंद्र की पूर्ण बहुमत वाली भाजपा की सरकार क्या असमय होरही  मासूमों की मौतों को रोकने में कामयाब होगी?
 बहरहाल, जो भी हो।11 अगस्त 2017 पुर्वांचल के लोगों के लिए ब्लैक फ्राइडे साबित हुआ है।48 घण्टों में करीब 51 मौतें जिसमे 30 बच्चों की कथित ऑक्सीजन की कमी से हुई मौतों ने हम सब को झकझोर दिया है। पहली बार यह जानलेवा बीमारी राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बनी है।लोगों की संवेदनाएं मासूमों से जुड़ी हैं।लोग ब्यथित और दुखी हैं।लेकिन अवाम किस पर भरोसा करे ।उसकी उम्मीदें टूटती जारही हैं।सरकार बदली।निज़ाम बदला।लेकिन उनके हालात नही  बदले।उसके अकीदत के दिये भी बुझते जा रहे हैं।साहिर लुधियानवी का एक शेर याद रहा है।
बुझ रहें है एक-एक करके अक़ीदों के दीए,
इस अन्धेरे का भी लेकिन सामना करना तो है !!

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