पहले अफगान सेना से लड़े, अब सरकार बनाने को लेकर आपस में भिड़े तालिबान !!!

(Pi Bureau)

अफगानिस्तान में अमेरिकी सैनिकों की पूरी तरह से वापसी हो चुकी है. इसके बाद तालिबान ने सरकार के गठन पर भी काम शुरू कर दिया है. सरकार के गठन को लेकर तालिबान नेतृत्व और हक्कानी नेटवर्क के बीच व्यस्त बातचीत जारी है.इस बीच मिली जानकारी के अनुसार संभावित सरकार को लेकर हक्कानी नेटवर्क और कंधार को नियंत्रित करने वाले मुल्ला याकूब के गुट में खींचतान चल रही है. तालिबान को इस बात की चिंता सता रही है कि कंधारियों का एक अफगान समर्थक गुट और हक्कानी का पाकिस्तान समर्थक गुट आमने-सामने हो सकते हैं. ऐसे में बड़ा सवाल है कि तालिबान आगे क्या करेगा?

सुन्नी पश्तून संगठन के सर्वोच्च नेता मुल्ला हिबतुल्ला अखुंदजादा सरकार के गठन पर चर्चा के लिए काबुल पहुंच सकते हैं. बुधवार यानी आज शाम या गुरुवार यानी कल सुबह तक तालिबान सत्तारूढ़ मंत्रिमंडल का ऐलान कर सकता है.

काबुल की रिपोर्टों से संकेत मिलता है कि मुल्ला याकूब (जो सैन्य आयोग का प्रमुख और उप नेता भी हैं) ने खुले तौर पर कहा है कि दोहा की विलासिता में रहने वाले लोग अमेरिका के नेतृत्व वाली ताकतों के खिलाफ जिहादी शर्तों को निर्धारित नहीं कर सकते हैं. मुल्ला बरादर और शेर मोहम्मद स्टेनकजई ने दोहा से तालिबान के राजनीतिक कार्यालय को चलाया. दोनों ने ही पाकिस्तान और ब्रिटेन के अधिकारियों के साथ अमेरिकी राजदूत ज़ल्मय खलीलज़ाद के साथ बातचीत की थी.

तालिबान के भीतर मुल्ला याकूब और वर्तमान में काबुल को नियंत्रित करने वाले हक्कानी आतंकी साम्राज्य के बीच तनाव के साथ कई चिंता करने वाली रेखाएं भी उभर रही हैं. गैर-पश्तून तालिबान और कंधार गुट के बीच सत्ता को लेकर ठीक वैसे ही संघर्ष बढ़ता जा रहा है, जैसे पश्तून और गैर-पश्तून जनजातियों के बीच मतभेद बढ़ रहा है.

सुन्नी मध्ययुगीन लोकतंत्र के भीतर सबसे बड़ी चिंता याकूब, तालिबान और सिराजुद्दीन हक्कानी के बीच बढ़ता मतभेद है. याकूब और हक्कानी सत्तारूढ़ शासन के भीतर अफगानिस्तान और पाकिस्तान समर्थक गुटों को भी जन्म दे सकते हैं. जबकि तालिबान नेतृत्व पाकिस्तान समर्थक गुट पर आंख बंद करके भरोसा करने के बजाय अपने फैसले लेता है. वहीं हक्कानी नेटवर्क एक परिवार संचालित आतंकवादी कारखाना है, जिसे पाकिस्तानी आईएसआई से सहायता प्राप्त है. हक्कानी जिहादी झुकाव वाले सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारियों के माध्यम से संचालित होता है.

जाहिर तौर पर आने वाले समय के लिए पश्चिमी देशों ने अफगानिस्तान से मुंह मोड़ लिया है. रूस और चीन केवल अफगानिस्तान को इस्लामी अमीरात बनाने के तालिबान के फैसले का समर्थन कर रहे हैं. ऐसे में साफ है कि सत्ता की इस लड़ाई में नुकसान सिर्फ काबुल का है, जो आने वाले कई सालों तक अंधेरे में डूबा रहेगा.

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