यूपी: फस्ट राउंड पोल पर वरिष्ठ पत्रकार शाश्वत तिवारी की खास रिपोर्ट

पिछले कई दिनों से यूपी में जारी चुनावी अटकलों, फरमानों और फतवों को खारिज करते हुए पश्चिमी यूपी  में मुस्लिम मतदाता बड़ी संख्या में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस गठबंधन के लिए वोट करने की खबर है। सौ मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतारने के बावजूद बीएसपी मुसलमानों की पहली पसंद नहीं बन सकी है। हालत यह है कि मुजफ्फरनगर की बुढाना जैसी तमाम सीटों पर जहां समाजवादी पार्टी ने हिंदू उम्मीदवार उतारा है ओर बीएसपी की तरफ से मुस्लिम प्रत्याशी मैदान में है- वहां पर भी ज्यादातर मुसलमान ने समाजवादी पार्टी को ही पसंद किया हैं। बुढाना में सड़क के किनारे पपीता बेचने वाले मुस्तकिम अपने बूथ पर जाकर वोट करने वाले पहले मतदाता थे। वह खुलेआम बताते हैं कि उन्होंने समाजवादी पार्टी को वोट दिया। यह पूछने पर कि उन्हें हाथी के बजाय साइकिल ज्यादा पसंद क्यों आया वह मुस्कुराते हुए बहुत ही मजेदार जवाब देते हैं। उनका जवाब था- हाथी घर में नहीं आ सकता साइकिल आ सकती है। यहाँ मुस्लिम मतदाताओं का समाजवादी पार्टी के प्रति रुझान मायावती के लिए खतरे की घंटी है।
परंपरागत रूप से यही इलाका बीएसपी का मजबूत गढ़ रहा है। पिछले विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी की लहर के बावजूद बीएसपी ने यहां समाजवादी पार्टी के बराबर सीटें जीती थी। अगर इन 73 सीटों पर बीएसपी पिछड़ जाती है तो आगे की लडाई उसके लिए बेहद मुश्किल हो जाएगी। पूरे उत्तर प्रदेश में 17% मुसलमान हैं जब की पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उनकी आबादी 26% के करीब है। पश्चिमी के इन इलाकों में मुसलमानों का वोट बड़ी तादाद में पाना समाजवादी पार्टी के लिए शुभ संकेत है क्योंकि वह उम्मीद कर सकती है कि पूरे उत्तर प्रदेश में यही सिलसिला बरकरार रहेगा।
पहले चरण में मुस्लिम मतदाताओं का अच्छा समर्थन पाने के बावजूद इन्हें सीटों में तब्दील कर पाना समाजवादी पार्टी के लिए चुनौती होगी। उसकी वजह ये है कि इन इलाकों में यादवों की आबादी नहीं के बराबर है। यहां समाजवादी पार्टी के पास दूसरी कोई ऐसी मजबूत जाति नहीं है जो यहां के 26% मुस्लिम वोटों के साथ जुड़कर अखिलेश यादव को ज्यादातर सीटों पर जीत दिला दे। लेकिन मुसलमानों का ऐसा ही समर्थन अगर यहां पर बीएसपी को मिला होता तो दलित वोट बैंक के साथ जुड़कर बीएसपी के शानदार जीत की नींव रख देता।
समाजवादी पार्टी के लिए राहत की युवा वोटरों में अखिलेश यादव का क्रेज दिखता है। बीजेपी चाहे जो दावा करे जाट मतदाता बीजेपी से अपनी नाराजगी छिपा नहीं रहे हैं। लोकसभा चुनाव की तरह इस बार जाट मतदाताओं का पूरा समर्थन हासिल करना बीजेपी के लिए असंभव है। शनिवार को जिन 73 सीटों पर मतदान हुआ, उनमें ज्यादातर सीटें ऐसी हैं जहां जाट हार जीत में अहम भूमिका निभाते हैं। ज्यादातर सीटों पर जाट वोट बैंक राष्ट्रीय लोकदल और बीजेपी के बीच बंटता हुआ दिखा। ग्रामीण इलाकों में और खास तौर पर उम्रदराज जाट वोटर बीजेपी को सबक सिखाने के लिए राष्ट्रीय लोक दल को वोट कर रहे हैं। वहीं शहरी जाट और युवा लोग अभी भी बीजेपी को ज्यादा पसंद कर रहे हैं।
गांव में राष्ट्रीय लोक दल को वोट देने वाले कई जाट मतदाता खुलेआम यह कहते हैं कि उन्हें इस बात से मतलब नहीं है कि उनका उम्मीदवार जीतेगा या हारेगा उन्हें सिर्फ बीजेपी को हराने से मतलब है। बीजेपी से जाट वोटरों के नाराजगी का सबसे बड़ा कारण आरक्षण नहीं मिलना है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इन इलाकों में हरियाणा की छाप साफ दिखती है। इसीलिए हरियाणा में जाट आरक्षण आंदोलन के दौरान 21 जाटों का मरना लोग भूले नहीं हैं. जाटों को लगता है कि मुजफ्फरनगर दंगे के बाद लोकसभा चुनाव में ने उनका इस्तेमाल तो किया लेकिन बदले में उन्हें कुछ नहीं मिला। मुजफ्फरनगर शामली रोड पर खरड गांव के एक बुजुर्ग जितेंद्र मलिक कहते हैं कि नरेंद्र मोदी पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को तो जन्मदिन की मुबारकबाद देते हैं लेकिन जाटों के सबसे बड़े नेता चौधरी चरण सिंह के जन्मदिन पर एक ट्वीट करना भी उन्हें याद नहीं रहता।
अजीत सिंह की राष्ट्रीय लोक दल कई सीटों पर जाट वोट बैंक में सेंध लगाकर बीजेपी का खेल खराब कर रही है।
खुद राष्ट्रीय लोकदल मुट्ठी भर सीटे ही जीत पाएगी। उसकी वजह यह है कि बीजेपी से नाराज जाटों के अलावा दूसरी कोई जाति अजीत सिंह को वोट नहीं दे रही है। बीजेपी इस बात की उम्मीद लगाए बैठी है कि मुस्लिम वोटरों के बीच विभाजन का फायदा उसे मिलेगा। लेकिन पहले चरण के मतदान से उसकी चिंता जरूर बढ़ेगी। हालांकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सवर्ण पूरी तरह बीजेपी के साथ हैं। पिछड़ी जातियों के बीच पैठ बनाने की बीजेपी की कोशिश भी रंग ला रही है।

रिपोर्ट: शाश्वत तिवारी

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